9. प्रगीत और समाज science sangrah

 


9. प्रगीत और समाज क्वेश्चन आंसर 



लेखक- नामवर सिंह (निबंध)


जन्म - 28 जुलाई 1927


मृत्यु- 19 फरवरी 2019


जन्म स्थान जीअनपुर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश


माता - वागेश्वरी देवी


पिता- नागर सिंह (शिक्षक)


शिक्षा- प्राथमिक शिक्षाः आवाजपुर एव कमालपुर, उत्तर प्रदेश के गाँवो मे हुई।


हाई स्कूल: हीवेट क्षत्रिय स्कूल, बनारस


इंटर: उदय प्रताप कालेज, बनारस, बी०ए०और एम०ए०: बी०एच०यू० से क्रमशः 1949 और 1951 मे।


पी-एच० डी० : बी०एच०यू० मे पृथ्वीराजरासो की भाषा विषय पर 1956 मे पृथ्वीराज रासो हिन्दी भाषा में लिखा एक महाकाव्य है जिसमें पृथ्वीराज चौहान के जीवन और चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके रचयिता चंदबरदाई पृथ्वीराज के बचपन के मित्र और उनके राजकवि थे।


वृति-1953 मे काशी हिंदु विश्वविद्यालय मे अ थाई व्याख्याता (lecturer) ।


1959-1960 मे सागर विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर ।


1960-65 तक बनारस मे रहकर स्वतंत्र लेखन ।


# जनयुग (साप्ताहिक), दिल्ली मे संपादक और राजकमल प्रकाशन मे साहित्य सलाहकार


1967 से 'आलोचना' त्रैमासिक का संपादन, 1970 मे जोधपुर विश्वविद्यालय, राज थान मे हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद पर प्रोफेसर के रूप में नियुक्त, 1974 मे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति, 1987 मे जे० एन० यू० से सेवामुक्ति । पुनः अगले पाँच वर्षों के लिए वही पुनर्नियुक्ति 1993-96 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष ।


कृति- आलोचना-


1. आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ - 1954


2. छायावाद - 1955


3. इतिहास और आलोचना - 1957


4. कहानी: नयी कहानी - 1964


5. कविता के नये प्रतिमान- 1968


6. दूसरी परम्परा की खोज - 1982 7. वाद विवाद संवाद - 1989


साक्षात्कार-


1. कहना न होगा - 1994 2. बात बात में बात - 2006


पत्र-संग्रह-


काशी के नाम - 2006


व्याख्यान-


आलोचक के मुख से - 2005


सम्मान- 1971 मे 'कविता के नए प्रतिमान' पर साहित्य अकादमी पुरस्कार - यह पाठ आलोचनात्मक निबंधो की पुस्तक 'वाद विवाद संवाद' से लिया गया है।

 • नामवर सिंह के गुरू का नाम 'हजारी प्रसाद द्विवेदी' था ।


- आत्म परक प्रगीत जो लोगो में प्रचलित हो और जिससे हमें खुद के लिए प्रेरणा मिलती हो । नाट्यधर्मी कविता जिसमें नाटक के माध्यम से हमे उपदेश दिया जाता है उसमे की गई अभिनय के द्वारा हमे कुछ सिखने को मिलता है।


मुक्तक काव्य-


मुक्तक काव्य अपने आप में पूर्ण स्वतंत्र काव्य रचना (छंद/इकाई) होती है। इसकी पूर्णता के लिए ना तो इसके पहले और ना इसके बाद में, किसी संदर्भ या कथा की आवश्यकता होती है।


मुक्तक काव्य के प्रकार-


1. गेय मुक्तक ऐसे मुक्तक जो भाव प्रधान हों, जिनको सुर और लय के साथ गाया जा सके, गेय मुक्तक कहलाते हैं। जैसे- मीरा, कबीर, तुलसी आदि के पद ।


2. पाठ्य मुक्तक ऐसे मुक्तक जो विचार प्रधान होते हैं, जिनमें चिंतन या तर्क-वितर्क की प्रधानता होती है, पाठ्य मुक्तक कहलाते हैं। जैसे-बिहारी, रहीम, देव आदि के दोहे।


प्रबंध काव्य-


वह काव्य जिसका प्रत्येक छंद एक दूसरे से कथा के धागे में बँधा हुआ होता हैं, प्रबंध काव्य कहलाता है।



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पाठ का प्रश्नोत्तर


1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काव्य-आदर्श क्या थे, पाठ के आधार पर स्पष्ट करे । 


उत्तर- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काव्य-आदर्श प्रबंधकाव्य ही थे, क्योकि प्रबंधकाव्य मे मानव जीवन का एक पूर्ण श्य होता है। उन्हे आधुनिक कविता से शिकायत थी क्योकि आधुनिक कविता मे प्रगीत मुक्तको को बढावा दिया जाने लगा और कहा जाने लगा कि आज कल कोई लंबी कविताएँ पढना नही चाहता, किसी को फुरसत ही नही है। 


2. 'कला कला के लिए' सिद्धांत क्या है?


उत्तर- 'कला कला के लिए' सिद्धांत से तात्पर्य है- प्रगीत मुक्तको का चलन अधिक होना और लंबी कविताओ को नकार देना । 



3. प्रगीत को आप किस रूप में परिभाषित करेंगे? इसके बारे मे क्या धारणा प्रचलित रही है?


उत्तर- प्रगीत का अर्थ एकांत संगीत या अकेले बैठकर गाया हुआ गीत माना जा सकता है। इसके बारे मे यह धारणा प्रचलित रही है कि प्रगीत के रूप में प्रायः उसी कविता को स्वीकार किया जाता है जो बिलकुल व्यक्तिगत और आत्मपरक हो।


4. वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओ से क्या तात्पर्य है? आत्मपरक प्रगीत और नाट्यधर्मी कविताओ की यथार्थ-व्यंजना मे क्या अंतर है?


उत्तर- वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविता से तात्पर्य है- किसी सामान्य विषय पर आधारित नाट्य कविता । यह आकार कह ष्टि से कुछ लंबी होती है। आत्मपरक प्रगीत भी, नाट्यधर्मी लंबी कविताओ के समान ही होता है। आत्मपरक प्रगीत और नाट्यधर्मी कविता मे मंचन का अंतर होता है।


5. हिंदी कविता के इतिहास मे प्रगीतो का क्या स्थान है, सोदाहरण स्पष्ट करे ।


उत्तर- हिंदी कविता के इतिहास मे प्रगीतो का मुख्यस् थान है। हिंदी कविता का उदय गीत से हुआ है। गीतो ने लोगो के मन को बदलने मे क्रांतिकारी भूमिका अदा की है। कबीर, सूर, मीरा, नानक, रैदास आदि अधिकांश संतो ने प्रायः दोहे और गेय पद ही लिखे है। अगर विद्यापति को हिंदी का पहला कवि माना जाए तो हिंदी कविता का उदय ही गीत से हुआ है, जिसका विकास आगे चलकर संतो और भक्तो की वाणी मे हुआ ।



6. आधुनिक प्रगीत काव्य किन अर्थो मे भक्ति काव्य से भिन्न एव गुप्त जी आदि के प्रबंध काव्य से विशिष्ट है? क्या आप आलोचक से सहमत है? अपने विचार दे।


उत्तर- आधुनिक प्रगीत काव्य का उदय बीसवी सदी मे रोमैंटिक उत्थान के साथ हुआ, जिसका संबंध भारत के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष से है। भक्ति काव्य से अलग इस रोमैंटिक प्रगीतात्मकता के मूल मे एक नया व्यक्तिवाद है, जहाँ 'समाज' के बहिष्कार के द्वारा ही व्यक्ति अपनी सामाजीकता प्रमाणित करता है। इन रोमैंटिक प्रगीतो मे भक्तिकाव्य जैसी भावना तो नही है किंतु आत्मीयता और एंद्रियता जरूर है। मैथिलीशरण गुप्त जो कि राष्ट्रीयता संबंधी विचारो तथा भावो को काव्य का रूप देते थे। उनका काव्य भी प्रबंध काव्य था। उस समय उन्हे 'सामाजिक' माना गया। लेकिन विद्वान जनो को यह एहसास हो गया कि इन रोमैंटिक प्रगीतो मे भी सामाजिकता है।


7. "कविता जो कुछ कह रही है उसे सिर्फ वही समझ सकता है जो इसके एकाकीपन मे मानवता की आवाज सुन सकता है।" इस कथन का आशयस्प्ष्ट करे


उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति नामवर सिंह द्वारा रचित निबंध 'प्रगीत और समाज' से लिया गया है। आलोचक के अनुसार प्रगीतात्मक कविता मे कई परिवर्तन हुए। इस पंक्ति का आशय यही है कि व्यक्तिगत अथवा एकांत मे लिखे गए गीतो मे भी मानवता के भाव होते है और उसे केवल अकेला पन के मर्म को समझने वाला व्यक्ति ही समझ सकता है।


8. मुक्तिबोध की कविताओ पर पुनर्विचार की आवश्यकता क्यो है, आलोचक के इस विषय मे क्या निष्कर्ष है?


उत्तर- मुक्तिबोध ने सिर्फ लंबी कविताएँ ही नही लिखी। उनकी अनेक कविताएँ छोटी भी है, और छोटी होने के बावजूद लंबी कविताओ से किसी कदर कम सार्थक नही है। वे कविताएँ अपने रचना-विन्यास मे प्रगीतधर्मी है। कुछ विचार से तो नाटकीय रूप के बावजूद मुक्तिबोध की काव्यभूमि मुख्यतः प्रगीतभूमि है। मुक्तिबोध का समूचा काव्य मूलतः आत्मपरक है इसलिए उनकी कविताओ पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। लेकिन यह भी है कि यह कविता आत्मपरक होते हुए भी प्रत्येक कविता को गति और ऊर्जा प्रदान करती है।


9. त्रिलोचन और नागार्जुन के प्रगीतो की विशेषताएँ क्या है? पाठ के आधार पर स्पष्ट करे।


उत्तर- त्रिलोचन के प्रगीतो मे जीवन, जगत और प्रकृति के जितने रंग-बिरंगे चित्र मिलते है, वे दूसरे जगह दुर्लभ है। वही नागार्जुन की बहिर्मुखी आक्रामक काव्य प्रतिभा के बीच आत्मपरक प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति के क्षण कम ही आते है लेकिन जब आते है तो उनकी विकट तीव्रता प्रगीतो के परिचित संसार को एक झटके से छिन्न-भिन्न कर देती है। 



10. 'मितकथन मे अतिकथन से अधिक शक्ति होती है'। केदारसिंह की उद्धृत कविता से इस कथन की पुष्टी करे।


उत्तर- मितकथन का अर्थ होता है 'कम शब्दो मे अधिक कहना' जो कि केदारनाथ सिंह की कविता मे देखने को मिलता है। उन्होने बडा ही सीमित शब्दो मे एक विस्तृत भाव को व्यक्त किया गया है।


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By- Monu Sir & anu sir